
बग़दाद की कहानी महज़ एक शहर की दास्तान नहीं, बल्कि एक तहज़ीब, एक इल्मी मरकज़ और एक ताक़तवर सल्तनत की तारीख़ है। इस शहर ने दुनिया को इल्म, हिकमत, तिजारत और अदब का सबसे बड़ा तोहफा दिया, लेकिन फिर ये शहर ऐसे दर्दनाक मोड़ से गुज़रा कि सब कुछ खाक हो गया। मंगोलों की तबाही, फिर दुबारा उठना, उस्मानी सल्तनत का दौर और फिर जदीद दौर तक बग़दाद की दास्तान एक अज़ीम तारीख़ का हिस्सा है।
आज हम इस तारीख को पूरे तफ़सील के साथ समझेंगे— इसकी तामीर से लेकर इसके ज़वाल तक, और फिर इसके दोबारा उठने तक।
बग़दाद की बुनियाद (762 ईसवी)
अब्बासी ख़िलाफ़त और नई राजधानी की तलाश
इस्लामी तारीख़ में 750 ईसवी का साल एक बड़ा इंक़लाब लेकर आया। उम्मयद ख़िलाफ़त का ख़ात्मा हुआ और अब्बासी ख़लीफ़ाओं ने इस्लामी हुकूमत अपने हाथ में ले ली। इससे पहले, इस्लामी दुनिया की राजधानी दमिश्क़ थी, जहाँ उम्मयद ख़लीफ़ाओं का शासन था। अब्बासी खलीफाओं को दमिश्क़ से हटकर एक नई राजधानी बनाने की ज़रूरत थी, ऐसी जगह जो इल्म, तिजारत और सियासत का मरकज़ बने और पूरी दुनिया को अपने क़दमों में झुका दे।
इस काम को करने के लिए अब्बासी ख़लीफ़ा अबू जाफ़र अल–मंसूर ने इस नए शहर की तामीर के लिए एक शानदार जगह का इंतेख़ाब किया. खलीफ़ा ने ऐसी जगह का इन्तिखाब किया जो तिजारती रास्तों के दरमियान वाक्य हो, महफूज़ हो और बहोत ही ज़रखेज़ ज़मीन पर मौजूद हो. खलीफ़ा ने दजला और फ़ुरात नदियों के बीच की ज़मीन को चुना। ये जगह पहले भी बसी हुई थी, लेकिन इसे एक नए, बड़े और खुबसुरत शहर के रूप में तामीर किया गया। दजला और फ़ुरात नदियों के दरमियान ये जगह ना सिर्फ़ ज़रख़ेज़ थी, बल्कि मुसाफिरों और ताजिरों के लिए एक बेहतरीन मुकाम थी।
अब सवाल था शहर का नक्शा कैसा हो? खलीफा ने बड़े बड़े माहिर-ऐ-तामिरात, इंजिनियरज़ और माहिरिन-ऐ-फल्कियात को तलब किया. जिस दिन शहर की नींव रखी जानी थी। कहा जाता है कि बग़दाद की नींव रखने से पहले अल-मंसूर ने ज़मीन पर चूने और राख से उसका नक्शा बनवाया था। फिर उन्होंने सुनहरी रेत डालकर उसकी सीमाएं तय कीं।
बग़दाद को गोल शकल में बनाया गया जो उस वक़्त का सबसे जदीद और साइंसी तौर पर तरक्की याफ़्ता शहर था. इस डिज़ाइन को बनाने के पीछे कई मक़ासिद छुपे थे. पहला तहफ़्फ़ुज़. गोल डिज़ाइन से इसे फतह करना मुश्किल था। दुसरा, बाज़ारों और रहाइश का बेहतरीन बंदोबस्त. तीसरा शहर के चारों तरफ़ बाज़ार और अंदर हुकूमत का मरकज़, जिससे लोग, ताजिर और आलिम, सब एक साथ जुड़ सकते थे। और चौथा पानी की फ्रावानी. दजला और फुरात नदियों के बिच इसे बनाने से पानी आसानी से शहर में लाया जा सकता था. शहर के चारों तरफ ऊँची ऊँची दीवारें खड़ी की गयी जिससे ये किले जैसा महफूज़ नज़र आता था. इसलिए इसे “मदीनत अल-सलाम” यानी “अमन का शहर” कहा जाने लगा। ये डिज़ाइन किसी भी दूसरे शहर से अलग था.
शहर की तामीर में 100,000 मज़दूरों ने काम किया और चार साल के अंदर ये ख़ूबसूरत शहर बनकर तैयार हुआ। इस शहर में तीन सबसे ख़ास चीजें तामीर की गयी. पहला “गोल्डन गेट पैलेस यानी ख़लीफ़ा का आलिशान महल, जिसका हरा गुंबद दूर से ही नज़र आता था। दुसरा ग्रैंड मस्जिद – जहाँ इस्लामी उलमा, इमाम और क़ाज़ी बैठा करते थे। और तीसरा बैत-उल-हिकमत या हिक्मा जो आगे चलकर दुनिया का सबसे बड़ा लाइब्रेरी और तालीमी मरकज़ बना.
बग़दाद के नक़्शे को चार बड़े और अहम दरवाज़ों के ज़रिये दुनिया से जोड़ा गया.
पहला
- बसराह गेट – अरब के (दक्षिणी) यानी जुनिबी हिस्से से आने वालों के लिए।
दुसरा
- खुरासान गेट – जो पूर्व यानी मशरिक़ की और. जो फ़ारस और ख़ुरासान से आने जाने वालों के लिए था.
तीसरा
- शाम गेट – जो पश्चिमी यानी मग़रिब की और. शाम (दमिश्क़) और यूरोप से आने जाने वालों के लिए।
और चौथा
- कूफ़ा गेट – जो अरब के दीगर बड़े शहरों से जुड़ने का रास्ता था.
इसी के साथ इस शहर में बड़े बड़े बाज़ार, गुसल खाने और हस्पताल भी बनाये गए जिसने शहर को तिजारत का एक सबसे बड़ा मर्क़ज़ बना दिया. जल्द ही यहाँ के बाज़ार मजीद जानदार होने लगे. इत्र, मसाले, कपड़े और किमिति चीज़ों की दुकाने हर गली में खुल गयी.
अब्बासी हुकुमत के दौरान ख़ास तौर पर अब्बासी खलीफ़ा हारून रशीद और उनके बेटे अल-मामून के दौर में बग़दाद अपनी खुशहाली के उरूज पर जा पहुंचा. इस दौर में बग़दाद दुनिया का सबसे बड़ा साइंसी, तिजारती और अपनी तहज़ीब यानी कल्चर का सबसे बड़ा मरकज़ बन गया. ये दौर इस्लामी तारीख का सबसे अहम तरीन दौर था जिसे “इस्लामी सुनहरी दौर” (इस्लामी स्वर्ण युग) के नाम से जाना जाता है.
बग़दाद की सबसे बड़ी दौलत थी बैत–उल–हिकमत यानी “इल्म का घर“,जो एक इल्मी और तहक़ीक़ी मरकज़ था जिसे हारून रशीद और उसके बेटे अल-मामून ने मज़ीद तरक्क़ी दी. ये लाइब्रेरी नही थी बल्कि एक साइंसी और तालीमी इदारा था जहां दुनियाभर के जानकार आया करते थे. यहाँ दुनिया भर से क़ारीन और उलमा आते और यूनानी, रोमन, फ़ारसी और हिंदुस्तानी किताबों का तर्जुमा होता और नई तहक़ीक़ात की जातीं. यहाँ कुछ ऐसे माहिरिन भी आये जिन्हों ने दुनिया को अपने इल्म से कई चीजें बख्शी. जिनमें
अल-ख़्वा-रिज़मी – इन्होंने अलजेब्रा की बुनियाद रखी।
इबने सीना. जिन्होंने तिब्ब पर दुनिया की सबसे अहम किताब “क़ानून-फ़ी-तिब्ब” लिखी।
अल-रज़ी – इन्होंने चेचक और खसरा की बीमारी का इलाज खोजा और दोनों में फर्क को वाज़ेह किया।
अल-हसन इब्न अल-हैथम – इन्होंने नूरियात यानी प्रकाश विज्ञान (Optics) पर काम किया।
इस वक़्त बग़दाद दुनिया का सबसे अमीर शहर था। ताजिरों के क़ाफ़िले हर रोज़ यहाँ आते और बेश-कीमती चीज़ें अपने साथ लाते और लेकर जाते।
बग़दाद के बाज़ारों में क्या मिलता था?
भारत से – मसाले, कॉटन के कपड़े, हीरे और चंदन की लकडियाँ।
चीन से – रेशम, चीनी मिट्टी के बर्तन।
अफ्रीका से – सोना और हाथी दांत।
यूरोप से – लोहे के हथियार और घोड़े।
बग़दाद की गलियों में ज़िन्दगी ख़ुशगवार थी। सुनहरे कपड़े, चिलमों से उठते धुवों की खुशबू, बाज़ारों में ऊँटों की चहल–पहल, यह शहर पूरी दुनिया के लिए “स्वर्ण नगरी“ गोल्डन सिटी बन गया था।
लेकिन हर बुलंदी के बाद ज़वाल आता है. कोई भी अज़ीम शहर हमेशा बाकी नही रहता. सन 1258 में मंगोलों की ज़ालिम फ़ौज ने बग़दाद पर हमला किया. चंगेज़ खान के पोते हलाकू खान ने अपनी भारी फ़ौज के साथ बग़दाद को घेर लिया. मंगोल फ़ौज ने बग़दाद की दीवारों को तोड़ कर बग़दाद में तबाही मचा कर रख दी. उस वक़्त के आखरी अब्बासी खलीफा अल-मुस्तासिम ने लड़ाई के बजाए मंगोलों से मुआहिदा करने की कौशिश की लेकिन हलाकू खान ने इस पेशकश को अपनी कमज़ोरी समझा और 13 फरवरी 1258 को मंगोलों ने शहर पर हमला कर दिया.
बैत–उल–हिकमा को जला दिया गया. कहा जाता है की दरया ऐ दजला में इतनी किताबें फेंकी गयी की दरिया-ऐ-दजला का पानी किताबों की सियाही की वजह से कई दिनों तक सियाह हो चुका था. बग़दाद की मस्जिदें, बाज़ार और महलों को आग में झोंक दिया गया. यहाँ तक की आखरी खलीफ़ा अल-मुस्तासिम को कंबल में लपेटकर घोड़ों से कुचलवा दिया गया. तकरीबन 2 लाख लोग मारे गए. वो शहर जो कभी दुनिया का सबसे बड़ा मर्कज़ था आज खाक़ में मिल गया.
मंगोलों के हमले के बाद बग़दाद कमज़ोर हो गया था. फिर वो दौर भी आया जब 16 वीं सदी में सलतनत-ऐ-उस्मानिया का परचम बुलंद हुआ और बग़दाद उस्मानिया सल्तनत का हिस्सा बन गया. सलतनत-ऐ-उस्मानिया के दौरान बग़दाद ने दुबारा तरक्की की. इस दौरान अज़ीमुश्शान मसाजिद दुबारा तामीर की गयी. तिजारती रास्ते दुबारा खुल गए. मज़हबी तालीमात का दौर दौरा दुबारा शुरू हो गया. ये दौर 1534 से 1917 तक कायम रहा. लेकिन 1917 में अंग्रेज़ी फौजों ने पहली जंगे अज़ीम के दौरान बग़दाद पर क़ब्ज़ा कर लिया. 1920 में बग़दाद ब्रिटिश कंट्रोल में चला गया, लेकिन 1932 में इराक़ आज़ाद हो गया। आज बग़दाद इराक़ का दारुल-हुकुमत है लेकिन बग़दाद फिर भी जंग और फ़ितनों से बच न सका.
1980-1988 में ईरान-इराक़ जंग
1991 में खलीजी जंग
2003 में अमरीकी-इराक़ी जंग
इन सबने इस शहर को एक बार फिर कमज़ोर कर दिया। लेकिन बग़दाद आज भी अपनी तहज़ीब, तारीख़ और हुस्न को समेटे हुए है।
बग़दाद सिर्फ़ एक शहर नहीं, बल्कि इस्लामी तहज़ीब, इल्म और ताक़त का मरकज़ था। इसकी गलियों में आज भी वो ग़ुर्बत और शान की दास्तानें ज़िंदा हैं।
मुझे उम्मीद है की बग़दाद की ये तारींख जो मैंने आपसे शेयर की है आपको बेहद पसंद आई होगी. मुसलमानों को अपनी तारीख का पता होना बेहद ज़रूरी है. आज हम हमारी बा-रोशन तारींख से बिलकुल ना-आशना हो चुके है. उम्मीद है की ये विडियो आपको पसंद ज़रूर आया होगा. इसे ज़यादा से ज़यादा शेयर कीजिये और विडियो को लाइक करके अपनी राय का इज़हार ज़रूर करे. ऐसी ही सबक आमोज़ कहानियों और तारीख के वाकियात को जान्ने के लिए हमारे चैनल को सब्सक्राइब ज़रूर कर लीजिये.