
चमकते सूरज की किरणें जब बग़दाद की पत्थर से बनी इमारतों पर पड़तीं, तो पूरा शहर सुनहरी चमक से दमक उठता। तंग गलियों में दुकानदार अपनी दुकानें सजाने में मसरूफ़ थे, कहीं मसालों की तेज़ ख़ुशबू हवा में घुल रही थी, तो कहीं ताज़ा पक रही रोटियों की सुगंध राहगीरों को लुभा रही थी। बाज़ारों में तांबे के बर्तन खनकते, ऊँटों की घंटियाँ बजतीं और मस्जिद के ऊँचे मीनार से अज़ान की गूँज पूरी बस्ती में फैल जाती। चौराहों पर कुछ बच्चे लकड़ी की तलवारों से खेलते हुए अपनी दुनिया में ग़ुम थे, जबकि बुज़ुर्ग दरख़्तों के नीचे बैठे किस्से कहानियों में मसरूफ़ थे। फ़कीर अपनी मख़मली आवाज़ में इबादत की तस्बीह कर रहे थे, और दूर से आने वाले सौदागरों के क़ाफ़िलों का शोर कानों में गूंजने लगा था। गली कूचों में घोड़ों की टापों की आवाज़, ठेले वालों की पुकार और हंसी-मज़ाक़ से शहर की रूह ज़िंदा मालूम होती थी।
बग़दाद की उन्हीं तंग और हलचल से भरी गलियों में, एक झुका हुआ बूढ़ा शख्स धीरे-धीरे चलता जा रहा था। उसकी आँखों में दुनिया की ठोकरों की धूल जमी हुई थी, और चेहरे पर वक़्त की गहरी लकीरें साफ़ झलकती थीं। फटे हुए कुर्ते से उसका दुबला-पतला जिस्म झाँक रहा था, और हाथ में एक लकड़ी की छड़ी थी, जिसपर वह हर क़दम के साथ अपना सारा वज़न डाल रहा था। उसकी चाल में कमज़ोरी थी, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी थी. एक ऐसी उदासी जो किसी अपने के दिए हुए दर्द से पैदा होती है। वो कभी इधर देखता, कभी उधर, जैसे किसी को तलाश कर रहा हो, मगर हर चेहरे में उसे बेगानगी ही नज़र आती।
बूढ़ा शख्स एक गली के नुक्कड़ पर बने पत्थर के चबूतरे पर बैठ गया। उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं, और चेहरे पर थकावट की परछाइयाँ गहरी होती जा रही थीं। “क्या हाल बना दिया है मेरे अपनों ने…” उसने खुद से बुद-बुदाते हुए गहरी सांस ली। वो एक वक़्त में अपने घर का सरपरस्त था, जिसके पास दौलत भी थी और इज़्ज़त भी। मगर आज, उसी घर से निकाला हुआ एक बेसहारा मुसाफ़िर था। उसके अपने ही बेटों ने उसे ठुकरा दिया था। उम्र के इस आख़िरी पड़ाव पर, जब उसे सहारे की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, तब उसी के अपने ख़ून ने उसे दर-बदर भटकने के लिए छोड़ दिया। हवा में हल्की सी ठंडक घुल रही थी, और सूरज धीरे-धीरे बग़दाद की ऊँची इमारतों के पीछे छिपने को था। बूढ़े शख्स ने अपनी कांपती उंगलियों से दाढ़ी पर हाथ फेरा और आसमान की तरफ़ देखा, जैसे रब से कोई सवाल पूछ रहा हो। उसे बूढ़े शख्स का नाम इब्राहिम था.
बग़दाद की उन्हीं हलचल भरी गलियों में, जहाँ आज इब्राहिम अकेला और बेबस फिरता था, कभी उसकी गूंजती हुई आवाज़ और इज़्ज़त की चमक थी। वो सिर्फ़ एक आम आदमी नहीं था, बल्कि शहर में उसकी ईमानदारी, रहमदिली और नेक दिली की मिसालें दी जाती थीं। किस्सा उन दिनों का है जब इब्राहिम जवान और ताक़तवर हुआ करता था। बग़दाद के मशहूर बाज़ार में उसकी एक छोटी सी दुकान थी, जहाँ वो कपड़ों का कारोबार करता था। उसकी दुकान पर आने वाले हर ग्राहक को यक़ीन था कि इब्राहिम कभी किसी को धोखा नहीं देगा। इब्राहिम की ईमानदारी का आलम ये था कि उसके दुश्मन भी उसके खिलाफ़ कोई गवाही न दे सकते थे। लेकिन बुढ़ापा कई सबक़ दे जाता है.
इब्राहिम के तीन बेटे थे, मगर अफ़सोस, उनमें से कोई भी अपने बाप जैसा नेकदिल और सच्चा नहीं निकला। इब्राहिम ने अपनी जवानी की कमाई और मेहनत से अपने बेटों को पाल-पोसकर बड़ा किया, उन्हें हर तरह की सहूलतें दीं, मगर शायद उनकी तालीम और तरबियत में कहीं कोई कमी रह गई थी, या फिर उनकी क़िस्मत ही अलग थी।
बड़ा बेटा उमर, उमर सबसे बड़ा था और सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार होने वाला था. मगर उसके दिल में दौलत की भूख इस कदर घर कर गई थी कि वो हर चीज़ को सिर्फ़ मुनाफ़े और नुकसान के तराज़ू में तोलता। बचपन से ही उसे पैसों की हवस थी और जैसे-जैसे बड़ा हुआ ये हवस और बढ़ती गई। वो अक्सर बाज़ार जाकर उन अमीर ताजिरों को देखता था जो मेहँगी पोशाक पहने थे, उनके हाथों में अंगूठियाँ चमकती थीं। उमर के अंदर भी ये तमन्ना जाग गई के वो भी एक दिन इन्ही लोगों की तरह अमीर बने। इब्राहिम ने उसे कारोबार में अपने साथ रखा, मगर कुछ ही सालों में उमर ने अपना अलग सौदा शुरू कर लिया। वो कारोबार में बे-ईमानी करने लगा, नाप-तौल में हेराफेरी करता और कम दाम में चीज़ें खरीदकर महंगे दामों में बेचता। उसके लिए दुनिया में सबसे अहम चीज़ पैसा था. न बाप की मोहब्बत, न भाईयों का रिश्ता, न किसी और की परवाह।
“अब्बा, इस दुनिया में इज़्ज़त नहीं, सिर्फ पैसा चलता है!” वह अक्सर इब्राहिम से बहस करता।
इब्राहिम ने उसे समझाया, “बेटा, हराम का पैसा जितनी तेज़ी से आता है, उतनी ही तेज़ी से चला भी जाता है,” मगर उमर के कानों पर जूँ तक न रेंगती। इब्राहिम ने उसे नसीहत की “बेटा, असल दौलत इंसान की इमानदारी और अल्लाह का शुक्र है।” पैसा सिर्फ एक फितना है, अगर तुम इसको सही तरीके से कमा सकते हो तो बरकत है, वरना ये इंसान को तबाह भी कर सकता है।” मगर उमर का दिल दुनिया की चमक धमक में खो चुका था।
दूसरा बेटा – फराज़ (नफ़्स का गुलाम, ऐशपरस्त) फराज़ बचपन से ही शानो-शौकत और आराम का आदी था। उसे महफ़िलों और अय्याशी का ऐसा चस्का लग गया था कि उसे अपने घर और कारोबार में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। वो रातभर महफिलों में बैठता, शायरों और गाने-बजाने वालों के साथ वक्त गुज़ारता और शराब के दौर चलते रहते। इब्राहिम ने उसे कई बार समझाया, “बेटा, ये रास्ता तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा,” मगर फराज़ बस हंसकर टाल देता. “अब्बा, ज़िंदगी एक बार मिलती है, इसे खुलकर जीने दो!” इब्राहिम ने दुसरे बेटे को भी नसीहत की “बेटा शर्म और ह्या इंसान के ईमान का हिस्सा है, जो शख्स अपनी शर्म खो देता है वो एक दिन सबकुछ खो देता है.” धीरे-धीरे, फराज़ के हाथों से पैसे फिसलने लगे, और उसे अपनी ऐशपरस्ती के लिए हर रोज़ नए बहाने चाहिए थे। कभी दोस्तों से उधार लेता, कभी किसी से झूठ बोलकर पैसे ऐंठता।
तीसरा बेटा – क़रीम, क़रीम सबसे छोटा था और इब्राहिम को उससे सबसे ज़्यादा उम्मीदें थीं। मगर यही उम्मीदें एक दिन मिट्टी में मिल गईं। क़रीम को बचपन से ही बुरी संगत मिल गई थी। पहले ये सिर्फ़ दोस्तों के साथ घूमने-फिरने तक था, मगर धीरे-धीरे उसने झूठ बोलना, चोरी करना और फ़रेब देना सीख लिया। क़रीम को न कारोबार से मतलब था, न अपने घर की इज़्ज़त से। वो दिनभर आवारा लड़कों के साथ रहता और हर उस रास्ते पर चला जाता, जहाँ बर्बादी उसका इंतज़ार कर रही थी। इब्राहिम ने कई बार उसे रोका, मगर क़रीम के लिए दोस्तों की महफ़िल ही सब कुछ थी। “अब्बा, आप समझते नहीं, दुनिया बदल गई है! जो चालाक नहीं, वो इस दौर में कुछ भी नहीं कर सकता,” क़रीम बड़ी बेपरवाही से कहता। बाप ने कहा “जो दोस्त तुम्हें गुनाह के रास्ते पर ले जाएँ, वो दोस्त नही दुश्मन है.” लेकिन क़रीम ने बाप की इस नसीहत को सुन कर भी अनसुना कर दिया.
तीनो का रास्ता बदलने लगा. जब तीनो भाई बड़े हुए, तो हर एक का सफ़र अलग हो चुका था. उमर पैसों का दीवाना बन चूका था, हर वक्त नए तरीके ढूंढता के ज्यादा से ज्यादा माल कैसे कमाए। फ़राज़ अपनी हवस-परस्ती में मस्त था, महफिल-ए-रक्स और गुनाह उसका नया घर बन चूका था। क़रीम अपने बुरे दोस्तों की बातों में आकर धीरे-धीरे एक चोर की तरह बन रहा था। इब्राहिम की मुश्किलें पहले ही कम नहीं थीं, मगर अब उसकी ज़िंदगी में एक और तूफान आने वाला था उसके तीनों बेटों की शादियाँ। शादी एक ऐसा रिश्ता होता है जो इंसान की तक़दीर को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। मगर इब्राहिम के बेटों ने ऐसी औरतों को चुना, जिन्होंने उनके अंदर की बुराइयों को और बढ़ा दिया।
उमर की हमेशा से यही ख्वाहिश थी कि वो किसी ऐसे घर में शादी करे, जिससे उसे और ज़्यादा दौलत मिल सके। उसकी इस तमन्ना को पूरा किया ज़ुबैदा नाम की एक अमीर मगर बेहद मतलबी औरत ने। ज़ुबैदा बग़दाद के एक रईस सौदागर की बेटी थी। उसके पास महंगे कपड़े, ज़ेवर और बड़ी हवेली थी, मगर उसका दिल दुनिया की दौलत के लिए कभी नहीं भरता था। जब उमर ने उससे शादी की, तो वो और भी लालची बन गया। शादी के बाद ज़ुबैदा ने उस पर दबाव डालना शुरू कर दिया,
“उमर, तुम्हारी सोच बहुत छोटी है! अगर मेरे अब्बा एक बाज़ार के मालिक हो सकते हैं, तो तुम क्यों नहीं?” मगर इसके लिए बहुत पैसा चाहिए, उमर ने कहा। “तो फिर पैसा कमाने के और भी तरीके हैं!” ज़ुबैदा ने उसकी आँखों में देख कर कहा।
धीरे-धीरे, उमर ने हराम कमाई के नए रास्ते खोल दिए, बेईमानी, मिलावट, रिश्वत, और मुनाफाखोरी। अब उसका एक ही मकसद था किसी भी तरह से ज़्यादा से ज़्यादा पैसा इकट्ठा करना। वो अपने बूढ़े बाप को ताना मारता, “अब्बा, आपकी ईमानदारी ने आपको क्या दिया? देखिए, असली ताकत तो दौलत है!”
फराज़ को महफ़िलों और अय्याशी का शौक़ था, और उसकी शादी भी उसी रंग में रंगी हुई थी। उसने जिससे निकाह किया, वह कोई शरीफ़ घराने की लड़की नहीं थी, बल्कि एक महफ़िलों में नाचने वाली औरत थी जिसका नाम सायरा था। सायरा बला की ख़ूबसूरत थी, उसकी आँखों में एक अजीब सा जादू था और उसकी बातों में ऐसा असर था कि कोई भी उसकी मोहब्बत में गिर सकता था। फराज़ ने उससे शादी कर ली, मगर ये शादी नहीं थी, बल्कि एक बर्बादी का आग़ाज़ था। सायरा ने फराज़ को और भी ज़्यादा महफ़िलों और ऐशपरस्ती में धकेल दिया। वो उसे समझाती “फराज़, ये ज़िंदगी मौज-मस्ती के लिए बनी है। कौन देखता है कि कल क्या होगा?” अब फराज़ रात-रात भर महफ़िलों में रहता, शराब के दौर चलते, सायरा की महंगी फ़रमाइशें पूरी करता और अपना घर तबाह करता गया। इब्राहिम को जब ये पता चला, तो वो कांप उठा। बूढ़े बाप ने कहा “फराज़! ये तुम क्या कर रहे हो? मगर फराज़ ने हंसकर जवाब दिया, “अब्बा, आप अपनी दुनिया जी चुके हैं, अब मुझे मेरी दुनिया जीने दें!
सबसे छोटे बेटे अयान की हालत पहले ही ख़राब थी। उसकी संगत ने उसे बरबाद कर रखा था, मगर जब उसने शादी की, तो उसकी तबाही पूरी हो गई। उसकी बीवी का नाम मरियम था, जो देखने में बहुत सीधी-सादी लगती थी, मगर हकीकत में बेहद चालाक और शातिर थी। मरियम को अपने शौहर की बुरी आदतों का पता था, मगर उसने उसे सुधारने के बजाय, उसकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना शुरू कर दिया।
बग़दाद की उन तंग गलियों में जो हवेली कभी खुशियों से गुलज़ार थी, अब वहां बस एक बूढ़े बाप की सिसकियों की गूंज थी। घर की दीवारें गवाह थीं कि कैसे जिस बाप ने अपने बेटों को चलना सिखाया था, आज वही बेटे उसे गिराने में लगे थे। उमर अब अपने बाप को किसी पुराने सामान से ज़्यादा कुछ नहीं समझता था। हर रोज़ नयी तिजारत, नये सौदे, नयी जोड़-तोड़ बस पैसा, पैसा और पैसा! और उसकी बीवी ज़ुबैदा उसे और भड़काती थी. उमर, ये घर तुम्हारा है और तुम्हारे अब्बा अब इस घर के मालिक नहीं, बल्कि एक बेकार इंसान हैं। कब तक इन्हें यूँ खिलाते रहोगे? बीवी की बात सुनकर उमर ने एक दिन अपने बाप से साफ़ कह दिया, “अब्बा, अगर आपको यहाँ रहना है, तो हमारे उसूलों पर चलना होगा! ये मत सोचिए कि हम आपकी ख़िदमत के लिए बैठे हैं!” इब्राहिम की आँखें नम हो गईं। उसी बेटे ने ये कहा था, जिसे उसने रातों को जागकर पाला था, जिसके लिए उसने अपने पेट की रोटी तक काटी थी! बेटे का ये रवैया देख कर इब्राहीम ने सिर्फ एक बात अपने दिल में कही “या अल्लाह तू सब देख रहा है, मुझे बीएस सब्र अता कर.”
फराज़ को अब घर की ज़रूरत नहीं थी। उसकी दुनिया तो महफ़िलों और शराब खानों में थी। वो कई दिनों तक घर नहीं लौटता और जब आता, तो इब्राहिम उम्मीद से उसकी तरफ़ देखता, मगर जवाब में बस एक बेपरवाह मुस्कान मिलती।एक दिन जब फराज़ देर रात लौटा, इब्राहिम ने कांपते हुए लहजे में कहा, “बेटा, क्या तुम्हें मेरी ज़रूरत नहीं लगती?” फराज़ हंस पड़ा, “अब्बा, अब ये पुराने ज़माने की बातें छोड़ दीजिए! मैं अपनी ज़िंदगी जी रहा हूँ, आप भी जी लीजिए!” सायरा अंदर से निकलकर बोली, “अरे, अब अपने बाप को रहने दीजिए! ज्यादा दिल लगाने की जरूरत नहीं!” बेटे की ये बे-आबरु बात सुन इब्राहिम का दिल चीख उठा, मगर ज़ुबान खामोश रही। अपनी ख़ामोश ज़बान से इब्राहीम ने फिर अपने दिल में दुआ की “या अल्लाह मेरे सब्र को और मज़ीद बढ़ा दें.”
क़रीम अब सिर्फ़ एक नाम था, उसकी रूह कहीं खो चुकी थी। वो अब शराफत के रास्ते से हटकर जुआरियों और ठगों की सोहबत में जा चुका था। एक शाम इब्राहिम ने उसे बाहर जाते देखा, “बेटा, कहाँ जा रहे हो? रात हो रही है…” क़रीम झुंझला उठा, “अब्बा, ये मेरा घर है या जेल? मैं जहाँ चाहूँ, जाऊं! और हाँ, मेरी बीवी ने कहा है की अब आप घर के किसी काम में दख़ल नहीं देंगे!” मरियम भी अंदर से आवाज़ लगाने लगी, “अगर आपको इतनी ही तकलीफ़ हो रही है, तो आप यहाँ से चले जाइए! हमसे आपकी शिक़ायतें अब और नहीं सुनी जातीं!” इब्राहिम ने अपने कमज़ोर हाथों से दीवार का सहारा लिया। आज उसे एहसास हुआ की वो इस घर में सिर्फ़ एक अजनबी है।
उस रात घर में रौशनी थी, मेहमान आए थे, शोर-शराबा था। मगर ये शोर सिर्फ़ दौलत और ऐश-मस्ती का था। कोई नहीं देख रहा था कि एक कोने में बैठा इब्राहिम कांपते हाथों से सूखी रोटी के टुकड़े खा रहा था। वो नज़रें उठाकर देखता, शायद कोई उसका हाल पूछे, मगर हर कोई अपनी दुनिया में मस्त था। फिर वो अपनी चारपाई पर गया, अंधेरे में छुपकर रोने लगा और अपने हकीकी खालिक़ से बातें करने लगा. ऐ मेरे अल्लाह! ये वही बेटे हैं जिन्हें मैंने गोद में खिलाया था. ये वही घर है जिसे मैंने अपने हाथों से बनाया था. आज मेरे ही घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं? उसकी आँखों से आँसू बहते रहे। रात गहरी होती गई, और इब्राहिम की दुआएं आसमान तक पहुँचने लगीं। ऐ मेरे परवरदिगार! तेरा शुक्र है की तू मुझे देख रहा है. अगर तू भी मुझे छोड़ देता, तो मैं किसके पास जाता? मगर ऐ अल्लाह! मेरे अपने ही मुझे ठुकरा चुके हैं, अब तू ही मेरा सहारा है!” इब्राहीम ज़मीन पर गिर पड़ा, रातभर इब्राहीम अल्लाह से फरियाद करता रहा.
बग़दाद की रात अपने सन्नाटे में डूबी हुई थी। सर्द हवा हवेली की ऊँची दीवारों से टकराकर सरसराहट पैदा कर रही थी। आसमान पर बादल छाए हुए थे, चाँद कहीं गुम हो चुका था और ठंडी हवा हड्डियों तक सरसराहट पैदा कर रही थी। मगर हवेली के अंदर रौशनी थी, गर्म कंबलों में लिपटे लोग, गरम खाने की खुशबू और आरामदेह बिस्तर, मगर आज इब्राहिम के लिए इस घर में कोई जगह नहीं थी। थोड़ी देर में उमर ने सख्त लहज़े में कहा, “अब्बा, इस घर में आपके लिए अब कोई जगह नहीं! आज ही निकल जाइए!” इब्राहिम ने अपने कांपते हाथ आगे बढ़ाए, “बेटा, रात बहुत ठंडी है मैं इस सर्दी में कहाँ जाऊँगा?” फराज़ ने चिढ़ते हुए कहा, “अब्बा, हमें फर्क नहीं पड़ता! चाहे मस्जिद में रहो, चाहे किसी गली में! मगर इस घर में तुम्हारा कोई हक़ नहीं!” क़रीम ने हँसते हुए कहा, “क्या आप चाहते हो कि हम अपनी बीवियों को छोड़कर आपकी देखभाल करें? हमें अपनी ज़िंदगी जीने दो!” इब्राहिम की आँखों में आँसू छलक आए। “बेटा, अगर मैं तुम्हारे लिए बोझ हूँ, तो कम से कम सुबह तक रुकने दो रात बहुत सर्द है.
मगर उमर की बीवी ज़ुबैदा ने हंसकर कहा हमें अपने घर में बुज़ुर्गों की सिसकियां नहीं सुननी! इसे बाहर निकालो!” फराज़ ने आगे बढ़कर इब्राहिम का हाथ झटक दिया। क़रीम ने दरवाज़ा खोला और तीनों बेटों ने मिलकर अपने बूढ़े बाप को दरवाज़े से बाहर धक्का दे दिया! बर्फ़-सी ठंडी ज़मीन पर गिरते ही इब्राहिम की पुरानी हड्डियों में झनझनाहट फैल गई। उसकी दाढ़ी मिट्टी और ठंड में सन गई। ठंडी हवा उसके गालों पर तेज़ छुरी की तरह लग रही थी। फराज़ ने दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया। बूढ़ा इब्राहिम ठंडी सड़क पर नंगे पैर चलने लगा। इब्राहीम एक वीरान गली के कोने में जाकर गिर पड़ा। दूर कहीं से मस्जिद की अज़ान की हल्की आवाज़ आ रही थी। इब्राहिम ने कांपते हुए आसमान की तरफ़ देखा और बस इतना कहा “या अल्लाह जब मेरे अपने मुझे इस ठंडी रात में छोड़ गए, तो अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं!
इब्राहीम अपनी फ़रियाद करते करते बग़दाद की उन्हीं गलियों में कही गम हो गया. तीनों भाइयों की ज़िन्दगी ऐशो इशरत के साथ बीत रही थी. लेकिन बाप के दिल की आह ने उन्हें आ पकड़ा. मां बाप के साथ किया गया सुलूक इंसान को इस ज़िन्दगी में भी ज़रूर भुगतना पड़ता है. उमर हमेशा दौलत का भूखा था। उसके पास बड़े-बड़े व्यापार थे, ऊँचे महलों में रहता था, मगर लालच ने उसे अंधा कर दिया था। उसकी बीवी ज़ुबैदा हमेशा उसे और पैसे कमाने पर मजबूर करती। एक दिन उसने अपने व्यापार को दोगुना करने के लिए अपना पूरा माल-ओ-मताअ एक बड़े सौदे में लगा दिया। मगर ये उमर की सबसे बड़ी ग़लती थी! बग़दाद के बाज़ार में एक खौफ़नाक आग फैली और उमर के सारे गोदाम जलकर राख हो गए। वो सब कुछ खो चुका था! सोना, चांदी, गहने, क़ीमती सामान सबकुछ जलकर खाक हो गया! वो बदहवास होकर घर पहुँचा “ज़ुबैदा… मेरा सब कुछ जल गया!” ज़ुबैदा ने ठंडी नज़रों से उसकी तरफ देखा, फिर मुस्कुराते हुए कहा, “तो अब तुम मेरे किसी काम के नहीं। मैं किसी कंगाल के साथ नहीं रह सकती!” ये कहकर उसने अपना सारा साज़ो सामान लपेटा और उसे छोड़ कर वहाँ से चली गयी! उमर पागलों की तरह चिल्लाता रहा, मगर अब उसके पास न पैसा था, न घर, न बीवी!
अभी उमर के वक़्त को बदले दिन नही गुज़रे थे की फ़राज़ की ज़िन्दगी ने भी एक नया मोड़ लिया. फराज़ की पूरी दुनिया ऐशपरस्ती, नाच-गाना और शराब के प्यालों में डूबी हुई थी। वो रातों को महफिलों में बिताता और दिन को सोता। उसकी बीवी सायरा भी एक नाचने-गाने वाली थी, जो सिर्फ पैसे और शानो-शौकत की दीवानी थी। शुरुआत में सब कुछ उसके मुताबिक चल रहा था। महफिलें सजतीं, शराब के जाम छलकते, और सायरा उसकी बाहों में मुस्कुराती। मगर उसे क्या पता था कि जिस औरत के लिए वो अपनी इज्जत और पैसे लुटा रहा था वही एक दिन उसे सबसे बड़ा धोखा देगी!
एक रात, जब फराज़ अपनी महफिल में मशगूल था, उसने देखा कि सायरा किसी और शख्स के साथ बेहद करीब से हंस-बोल रही थी। पहले तो उसने इसे नज़र अंदाज किया, मगर कुछ दिनों बाद सायरा के रवैये में बड़ा फर्क आ गया। अब वो उससे बहस करती, उसे ताने देती और उसके पैसे उड़ाने में कोई कमी न छोड़ती। फ़राज़ को ये सब खटक रहा था मगर वो उसे खोने के ख्याल से डरता था। फिर एक दिन वो महफिल से लौटा तो उसके घर के दरवाज़े पर ताला लगा हुआ था! सायरा सब कुछ लूटकर भाग चुकी थी! उसने घर के सारे कीमती गहने, पैसे, कपड़े यहां तक की फ़राज़ की मां की दी हुई आखिरी निशानी तक उठा ली थी! फ़राज़ सदमे में खड़ा रह गया। वो लोगों से पूछता रहा मगर किसी को कुछ नहीं पता था। वो जिस पर आंखें बंद करके भरोसा कर बैठा था उसी ने उसकी पूरी दुनिया तबाह कर दी थी!
अब फ़राज़ वही इंसान था जिसे कभी रंगीन महफिलों में सर आंखों पर बिठाया जाता था मगर आज गली-गली भटक रहा था। वो पहले की तरह कीमती कपड़े नहीं पहनता था बल्कि अब उसके कपड़े फटे हुए थे। उसका चेहरा नशे और दुख से झुर्रियों से भर चुका था। जिस्म कमजोर और बीमार हो चुका था। अब वो किसी मस्जिद के बाहर बैठकर लोगों से खाना मांगता था मगर उसे पहचानने वाला कोई नहीं था। जिस औरत के लिए उसने अपने बाप को घर से निकाल दिया था वही औरत उसे लूटकर भाग गई थी। अब उसे एहसास हो रहा था “काश, मैं उस दिन अब्बा के पैरों में गिर जाता.. काश, मैंने अल्लाह से डरकर ज़िंदगी गुज़ारी होती!” मगर अब पछताने के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं था!
क़रीम बचपन से ही आवारगी का शौक़ीन था। उसे ना कारोबार से दिलचस्पी थी, ना ही घर की ज़िम्मेदारियों से। उसके लिए ज़िंदगी का मतलब सिर्फ़ दोस्तों की महफ़िलें, हँसी-मज़ाक, और बेफिक्री से दिन गुज़ारना था। अब्बा इब्राहीम उसे बार-बार समझाते, मगर वो हर नसीहत को बेवक़ूफ़ी समझकर टाल देता। उसकी बीवी मरियम भी बिल्कुल उसकी जैसी थी मतलब परस्त और चालाक। वो ऐशो-आराम की भूखी थी और चाहती थी कि क़रीम किसी भी तरह दौलत कमाए। इसलिए उसने जल्द अमीर बनने के लिए जुए और सट्टे का रास्ता अपना लिया। एक रात उसके दोस्तों ने उसे एक बड़ी बाज़ी खेलने के लिए उकसाया। “बस ये आख़िरी दाँव खेल ले क़रीम फिर तू दौलत में खेलेगा!” क़रीम ने अपने घर की आख़िरी जमा-पूंजी दाँव पर लगा दी। मगर… ये उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती साबित हुई! वो सब कुछ हार चुका था! जब उसने अपने दोस्तों से मदद माँगी, तो वो ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। “अबे बेवक़ूफ़! हम तो कब से तुझे उल्लू बना रहे थे!” फिर उन्होंने उसे धक्के देकर अपनी महफ़िल से बाहर निकाल दिया। अब उसकी जेब ख़ाली थी, उम्मीदें बिखर चुकी थीं और दुनिया अंधेरी लगने लगी थी।
क़रीम थका हारा जब अपने घर पहुँचा तो दरवाज़े पर ताला लटका हुआ था! जब उसने मरियम को ढूँढा तो वो कहीं नज़र न आई. पड़ोसियों ने बताया मरियम सारा साज़ो सामन लेकर यहाँ से जा चुकी है. जाते-जाते तेरा जो कुछ भी था सब समेटकर ले गई! क़रीम की आँखों के आगे अंधेरा छा गया। “नहीं.. ये नहीं हो सकता!” मगर यही हक़ीक़त थी। मरियम जिस दौलत की प्यास में थी, वो दौलत मरियम को अब किसी और के साथ नज़र आई। जाते जाते मरियम एक खत क़रीम के लिए छोड़ गयी जिसमें लिखा था “तुम सिर्फ एक बेवकूफ शख्स हो, जो अपने बूढ़े बाप का नही हो सका वो मेरा क्या होगा.”
जो कभी दोस्तों की महफ़िलों की जान हुआ करता था, वही अजनबियों की तरह सड़कों पर भटक रहा था। उसके पास ना घर था, ना पैसे, ना कोई अपनाने वाला। जिस दोस्ती को वो सब कुछ मानता था, वही उसे तबाह कर गई। जिस बीवी के लिए उसने अपना ईमान और घर छोड़ दिया, वही उसे लूटकर भाग गई। एक रात, ठंडी हवा चल रही थी। क़रीम एक वीरान गली में पड़ा था भूख और ग़म से कांपते हुए। अब उसे अपने बूढ़े बाप इब्राहीम की वो नसीहत याद आ रही थी “बुरी सोहबत इंसान को बर्बाद कर देती है!”
सर्द रात का सन्नाटा था। आसमान पर चाँद की हल्की चांदनी बिखरी थी, मगर शहर की रौनक़ें उन तीनों बेटों के दिलों से बुझ चुकी थीं। जो कभी दुनिया के ऐशो-आराम में मस्त थे, आज वही जिल्लत और बर्बादी में भटक रहे थे। तीनों अब टूट चुके थे…उनकी आँखों में आँसू थे, दिलों में जलन थी और ज़ुबान पर सिर्फ़ एक ही नाम “अब्बा… अब्बा कहां हैं?”
शहर की गलियों में दर-दर भटकने के बाद किसी ने उन्हें बताया कि “तुम्हारे अब्बा को बहुत अरसा हुआ शहर छोड़कर चले गए. अब वो बाहर मस्जिद में रहते हैं दिन रात इबादत करते हैं।” बस इतना सुनना था की तीनों भाई दौड़ पड़े! जब वो उस पुरानी मस्जिद के करीब पहुँचे, तो दूर से एक साया दिखा। एक बूढ़ा शख्स मस्जिद के सहन में एक फटी-पुरानी चटाई पर बैठा था। सर झुका हुआ, ज़ुबान पर अल्लाह का ज़िक्र और आँखें अश्कों से नम थीं। इब्राहीम… हाँ वो ही इब्राहीम जिसे उन्हीं की बेटों ने घर से निकाल दिया था! अब उसके पास ना कोई मकान था, ना कोई सामान, बस एक पुराना कम्बल और अल्लाह का सहारा। जैसे ही तीनों भाइयों की नज़र अपने बूढ़े बाप पर पड़ी उनका जिस्म काँप उठा। “अब्बा…अब्बा कहते तीनों अपने बूढ़े बाप की दौड़ पड़े!” तीनों ने एक साथ चीख़ मारी और अपने बूढ़े बाप के क़दमों में गिर पड़े!
फराज़ जो कभी महफ़िलों और ऐशो आराम का दीवाना था, अब गिड़गिड़ा रहा था “अब्बा… मुझे माफ़ कर दीजिए! मैंने अपनी बीवी और दौलत के नशे में आपको ठुकरा दिया, मगर अल्लाह ने मुझे बता दिया की जिसने अपने बाप को ठुकराया, उसे दुनिया भी ठुकरा देती है!”
क़रीम, जो दोस्तों के पीछे अपना सब कुछ लुटा चुका था, सिसकियाँ भरते हुए बोला “अब्बा… मैंने आपकी नसीहतें नहीं मानी… मैंने उन दोस्तों को अपना समझा, जिन्होंने मुझे मिट्टी में मिला दिया! अल्लाह ने मेरी आँखें खोल दीं.
सबसे बड़ा बेटा उमर, जिसने लालच में अंधे होकर अपने बाप को बेघर किया था, अपने अब्बा के पैरों को पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। “अब्बा… मैंने आपको दर्द दिया, आपके दिल को तोड़ा! मेरी बीवी ने मुझे दौलत का भूखा बना दिया, मगर जब सब चला गया तब समझ आया की असली दौलत तो माँ-बाप की दुआ होती है!”
इब्राहीम ने धीरे से अपनी बूढ़ी, काँपती उंगलियों से तीनों के सिर पर हाथ रखा। उनकी आँखें छलक पड़ीं मगर चेहरे पर सिर्फ़ सुकून था. एक बाप का सुकून, जिसने अपने खोए हुए बेटों को वापस पा लिया था। इब्राहीम ने अपनी थकी हुई, मगर नरम आवाज़ में कहा “अल्लाह की रहमत से बढ़कर कोई रहमत नहीं, मेरे बच्चों… अगर वो गुनाहगारों को माफ़ कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं?” तीनों बेटों ने एक साथ अपने अब्बा के साथ मस्जिद के अंदर जाकर नमाज़ पढ़ी। वो सज्दे में गिर गए… अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगने लगे… आँसू बहते रहे और दिल हल्का होता चला गया। अब उन्हें सबक मिल चुका था जो माँ-बाप की क़द्र नहीं करता, उसे ये दुनिया भी रुला देती है!
बूढ़े इब्राहिम और बेटों के मिलने को कुछ ही दिन हुए थे। तीनों भाई अब दिन-रात अपने बाप की खिदमत में लगे रहते, उनके लिए हर मुमकिन आराम का इंतज़ाम करने की कोशिश करते। मगर वक़्त अपनी चाल चल चुका था. इब्राहीम बहुत कमज़ोर हो चुका था। उनकी झुकी हुई पीठ, कांपते हुए हाथ और सूखी आँखें इस बात की गवाही दे रही थीं की अब उनका सफर खत्म होने वाला है। मगर उनके चेहरे पर अजीब सा सुकून था, शायद इस बात का कि उनके बेटे तौबा कर चुके थे और सही रास्ते पर लौट आए थे।
एक रात, जब चाँदनी अपनी ठंडी रोशनी बिखेर रही थी और मस्जिद की फिज़ा अल्लाह के ज़िक्र से रौशन थी, इब्राहीम ने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया। “बेटों… आओ मेरे पास।” तीनों दौड़ते हुए उनके पास आए और बूढ़े बाप के पैरों के पास बैठ गए। “अब्बा…? क्या हुआ?” उमर ने घबराते हुए पूछा। इब्राहीम की साँसें हल्की हो रही थीं, उनका जिस्म और भी कमजोर लग रहा था, मगर उनकी आँखों में एक गहरी तसल्ली थी। उन्होंने अपने कांपते हुए हाथों को उठाया और तीनों बेटों के सिर पर फेर दिया। “मेरे बच्चो… अल्लाह का शुकर है की मेरी आँखें बंद होने से पहले मैं तुम तीनों को सही रास्ते पर देख सका” बूढ़े बाप की आवाज़ धीमी थी, मगर हर लफ़्ज़ में मोहब्बत थी।
फराज़ सिसकने लगा, क़रीम की आँखों से आँसू गिर रहे थे, और उमर अपने अब्बा के हाथों को पकड़कर बार-बार चूम रहा था। “अब्बा… मत कहिए ऐसा! हमें अकेला छोड़कर मत जाइए…!” इब्राहीम हल्का-सा मुस्कुराए और बोले “अल्लाह के बंदों को कभी अकेला मत समझो… जब तक तुम नेक रास्ते पर रहोगे अल्लाह तुम्हारे साथ रहेगा. इब्राहिम ने धीरे से शहादत की उंगली उठाई, उनकी ज़ुबान पर सिर्फ़ एक लफ़्ज़ था— “ला इलाहा इल्लल्लाह…” और फिर एक लंबी, धीमी सांस और इब्राहीम की आँखें हमेशा के लिए बंद हो गईं।
तीनों बेटों पर मानो बिजली गिर पड़ी। “अब्बा…!” तीनों ने उन्हें झकझोरना चाहा मगर बूढ़ा बाप इस फ़ानी दुनिया से रुखसत हो चुका था. फराज़ फूट-फूटकर रोने लगा, क़रीम अपने चेहरे को दोनों हाथों में छुपाकर अश्कबार हो रहा था, और उमर अपने अब्बा के सीने से लगकर रो रहा था जैसे कोई बच्चा हो। वो अब किसी भी दौलत, किसी भी औरत, किसी भी दोस्त के पीछे नहीं भाग रहे थे, अब उनके लिए सबसे बड़ी चीज़ वो मोहब्बत थी जो उन्होंने गँवा दी थी “अपने बाप की मोहब्बत!”
शहर के लोग जमा हुए, मस्जिद के इमाम ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई। तीनों बेटों ने अपने हाथों से अपने अब्बा को क़ब्र में उतारा। जिस शख्स को उन्होंने कभी घर से निकाल दिया था, आज उसी के लिए वो मिट्टी खोद रहे थे। कब्र में सिर्फ एक ही लफ्ज़ सुनाई दे रहे थे “अब्बा हमें माफ़ कर दीजिए… हमें माफ़ कर दीजिए…!” मगर अब जवाब सिर्फ़ खामोशी थी।
तीनों भाइयों की आँखों में अब भी आँसू थे, मगर इस बार वो आँसू सिर्फ़ ग़म के नहीं थे वो तौबा और सबक़ के आँसू थे। अब वो दुनिया के पीछे नहीं भागेंगे… अब वो किसी और की बातों में नहीं आएंगे… अब वो सिर्फ़ वो करेंगे जो अल्लाह और उसके रसूल ने सिखाया है। क्योंकि जिस शख्स को उन्होंने ठुकराया था उसने जाते-जाते उन्हें ज़िंदगी का सबसे बड़ा सबक़ दे दिया था…
“माँ-बाप की कद्र करो, वरना अल्लाह तुम्हें ऐसी जगह गिराएगा जहाँ से उठना नामुमकिन होगा!”
वक़्त गुज़रता गया… तीनों भाइयों ने अपनी ज़िंदगियों को सँवार लिया। अल्लाह ने उनके गुनाहों को माफ़ किया और उन्हें फिर से कामयाबी की राह पर लौटा दिया। उनका कारोबार दोबारा फलने-फूलने लगा, दौलत वापस आ गई, इज़्ज़त भी मिल गई। मगर इस बार उनके दिलों में लालच नहीं था, ना ही हवस… अब वो दुनिया की नहीं, अपनी आख़िरत की फिक्र करते थे। मगर हर रोज़ सुबह की पहली नमाज़ के बाद तीनों भाई अपने बूढ़े वालिद की क़ब्र पर जाते। क़ब्रिस्तान की ठंडी ज़मीन पर तीन साए हर रोज़ घुटनों के बल बैठते। कभी फराज़ अपने कांपते हाथों से मिट्टी को सहलाता और कहता “अब्बा, काश मैं पहले समझ गया होता की असल क़ीमत दौलत की नहीं, माँ-बाप की दुआओं की होती है…”
कभी क़रीम अपने अश्कों से क़ब्र की मिट्टी भिगोता और कहता “अब्बा, मैंने ग़लत लोगों का साथ देकर आपको छोड़ दिया, मगर जब सारे साथ छूटे, तब समझ आया की सबसे बड़ा सहारा तो माँ-बाप होते हैं!” और कभी उमर हाथ जोड़कर रोता और कहता “अब्बा… आपने हमें माफ़ कर दिया, मगर हम खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे…” वो क़ब्र से लिपट जाते, मिट्टी को अपनी पेशानी से लगाते और फिर अल्लाह से अपने बूढ़े बाप के लिए मग़फ़िरत की दुआ माँगते। चाहे बारिश हो या तेज़ धूप, चाहे कारोबार की कितनी ही मजबूरियाँ क्यों ना हों, तीनों भाई रोज़ अपने वालिद की क़ब्र पर जाते, हाथ उठाकर दुआ करते, और फिर कुछ देर चुपचाप बैठे रहते। उनका वहाँ बैठना एक नसीहत बन चुकी थी…
क्योंकि वो जानते थे…
“अब्बा से बात करने का और कोई रास्ता नहीं बचा… बस यही एक ज़रिया है!”
सबक़ जो हर किसी को याद रखना चाहिए…
माँ-बाप के रहते उनकी क़द्र करो, क्योंकि जब वो चले जाते हैं, तो सिर्फ़ पछतावा रह जाता है।
दौलत, शौक़ और बुरी सोहबतें सिर्फ़ धोका देती हैं, मगर माँ-बाप की मोहब्बत हमेशा सच्ची होती है।
जिसने अपने माँ-बाप को रुलाया, अल्लाह उसे भी दुनिया में रुला देता है।
जब माँ-बाप दुनिया में नहीं रहते, तब उनकी क़ब्र पर जाना सिर्फ़ एक रस्म नहीं, बल्कि मोहब्बत का सबसे बड़ा सुबूत होता है। अल्लाह हर बेटे को माँ-बाप की क़द्र करने वाला बना दे और हमें उनके जाने से पहले संभलने की तौफ़ीक़ दें!” आमीन!