
बहोत पुरानी बात है। मशरिक़ की ज़मीन पर बसा हुआ था एक पुरसुकून और हसीन गांव “दारुलफ़ज़ल”। बग़दाद से कुछ कोस दूर ये गांव अपने सादगी भरे लोगों, तारीखी कूचों और गुलाबों की खुशबू से महकते बाग़ों के लिए मशहूर था। यहाँ ज़िंदगी वक्त की रफ़्तार से जुदा, जैसे ठहरी ठहरी सी चलती थी। इसी गांव की एक पुरानी मगर सलीक़ामंद गली में, मिट्टी और लकड़ी से बने एक छोटे से घर में रहता था एक नौजवान जिसका नाम था “अज़हर”। उसका चेहरा नूरानी था, आँखों में ग़ौर व तवज्जोह की चमक और बातों में शराफ़त की मिठास। अज़हर अपनी बूढ़ी मां “खदीजा बी” के साथ एक सीधी-सादी ज़िंदगी बसर करता था।
उनका गुज़र-बसर एक छोटी सी दुकान से था, जो गांव के नुक्कड़ पर एक पुराना तख़्त और दो रैक लिए हुए खड़ी थी। दुकान में रोज़मर्रा की ज़रूरत का छोटा-मोटा सामान मिलता था तेल, दाल, गुड़, मसाले और गांव के बच्चों के लिए कुछ मीठी टॉफियाँ। अज़हर और उसकी मां मिलकर दुकान चलाते थे। अज़हर दिन भर मेहनत करता, और खदीजा बी बैठकर हिसाब-किताब देखतीं, या फिर आने-जाने वालों से नर्मी और मोहब्बत से पेश आतीं। मगर जब शाम का सूरज ढलता और गांव की हवाएं ठंडी पड़ने लगतीं, तब दोनों मां-बेटे खाना खाकर चारपाई पर बैठ जाते। वही वक़्त होता जब खदीजा बी अपने बेटे से दिल की बातें किया करतीं।
उनकी आवाज़ में उम्र की थकन तो थी, मगर लफ्ज़ों में तजुर्बे की चमक भी थी। वो अक्सर अज़हर से कहा करतीं: “बेटा, मौत का वक़्त तो एक न एक दिन मुक़र्रर है। अगर मैं इस फ़ानी दुनिया से चली जाऊं, तो मेरी ये वसीयत याद रखना तुम इस दुनिया में अकेले नहीं हो। अल्लाह हर लम्हा, हर हाल में तुम्हारे साथ है।” अज़हर गर्दन झुकाकर ग़ौर से सुनता, और मां की आंखों में झांककर एक सुकून सा महसूस करता। खदीजा बी कहतीं, “तुम जो भी काम करो, अल्लाह पर भरोसा रखना। दुकान हो या कोई तिजारत ये सब बस ज़रिया-ए-मआश हैं। असल कामयाबी, असल सुकून अल्लाह की रज़ा में है।”
“हमेशा ईमानदारी और सच्चाई को थामे रखना, चाहे इसकी जो भी क़ीमत चुकानी पड़े। और अल्लाह के बंदों से नरमी से पेश आना, उनका सहारा बनना, क्योंकि अल्लाह तुम्हें उस वक़्त सहारा देगा, जब तुम्हें कोई सहारा देने वाला नज़र नहीं आएगा…” अज़हर अपनी मां की बातें सुनते-सुनते अचानक भर आई आवाज़ में बोला मां… अल्लाह न करे आप मुझे छोड़कर चली जाएं। अगर आप न रहीं तो मैं क्या करूंगा? इस तन्हा दुनिया में किस से बात करूंगा, किसके सीने पर सर रख कर सुकून पाऊंगा?”
ख़दीजा बीबी ने मुस्कराकर बेटे के सर पर नर्म हाथ रखा। उनकी हथेली से एक अजीब सी ठंडक दिल तक उतर गई। उन्होंने बड़ी तसल्ली से कहा: “बेटा, यही तो मैं कह रही हूं मेरा जाना तो यक़ीनी है। मगर अगर तू अल्लाह पर भरौसा रखेगा, तो तुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा। वही हमारा निगेहबान है, वही हमारी तदबीर करता है।” “अगर तू उस पर यक़ीन रखेगा, तो तुझे ज़िंदगी में कभी नाकामी नहीं मिलेगी। जो होता है, वो उसी के हुक्म से होता है।”
मां की इन बातों को अज़हर हर रोज़ सुनता था मगर हर बार वो इन बातों को दिल से कबूल करने में झिझकता। उसकी आंखों में सवालात के साये मंडराते। उसके दिल में ये ख्याल बार-बार उठता “अगर मेहनत मैं ही करता हूं, अगर ईमानदारी से पेश आना, नेक सीरत बनाना, लोगों से नरमी से पेश आना ये सब मेरे अपने अफ़आल हैं… तो फिर अल्लाह पर भरोसे का क्या मतलब? आख़िर कामयाबी तो इंसान की अपनी कोशिशों से मिलती है ना?
वो मां की हर बात को अदब से सुनता, मगर उन बातों को अमली तोर पर अपनाने से कतराता। उसे लगता, जैसे दुनिया का निज़ाम सिर्फ़ उसकी मेहनत पर मुनहसर है, न कि किसी ग़ैबी ताक़त पर। लेकिन अजहर नहीं जानता था कि बहुत जल्द एक ऐसा मोड़ उसकी ज़िंदगी में आने वाला है, जहां उसे महसूस होगा — “जो होता है, वाक़ई अल्लाह ही से होता है…” यहीं से उसकी ज़िन्दगी एक मोड़ लेगी… जहां वक़्त उसे आज़माएगा, क़िस्मत बदलेगी, और अज़हर को अपनी मां की बातें याद आएंगी।

वक़्त गुज़रता रहा। दिन आते गए, शामें ढलती रहीं… और आख़िर वो लम्हा भी आ ही गया, जिसकी पेशगी खदीजा बीबी उम्र भर अपने बेटे से करती रही थीं। ख़दीजा बीबी इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत हो गईं। न कोई आहट, न कोई शोर। जैसे किसी ने चुपके से ज़िंदगी की रौशनी बुझा दी हो। अज़हर के लिए वो सिर्फ़ एक मौत नहीं थी वो उसका साया थी, उसकी दोस्त, उसकी हमदर्द… और अब वो सब कुछ उससे जुदा हो गया।
अब अज़हर वाक़ई तन्हा था। घर लौटता, तो खामोशी दीवारों से लटकती मिलती. दुकान पर जाता तो हर चीज़ मां की याद दिलाती। वो तख़्त जहां मां बैठा करती थीं, वो कपड़ा जिस से वो मेज़ को साफ़ करती थीं, वो गल्ला जिसमें वो हर रोज़ हिसाब रखती थीं सब कुछ अब बेजान सा लगने लगा। घर की चारदीवारी अब सिर्फ़ ईंट और मिट्टी का ढांचा नहीं रह गई थी वो तन्हाई का अक्स बन चुकी थी। हर कोना अज़हर से उसकी मां की बातों को दोहराता: “तू अकेला नहीं होगा, अल्लाह तेरा सहारा बनेगा…” वो बातें, जिन्हें अज़हर ने कभी तसल्ली की तरह सुना ज़रूर था,
मगर दिल से कबूल नहीं किया था अब वहीं बातें उसके दिल में गूंजने लगीं।अब जब मां नहीं थीं, तो उन्हीं लफ़्ज़ों में उसे सुकून भी मिलने लगा। ज़िंदगी मुश्किल हो गई थी।
क़रीब एक माह बीत चुका था मां के इंतिक़ाल को। अज़हर अब उस तन्हाई से कुछ हद तक समझौता करने लगा था, मगर दिल का खालीपन अब भी वही था अधूरा, खामोश। एक रोज़, जब दुकान पर माल कम पड़ गया, तो उसे मजबूरन फैसला करना पड़ा कि अब उसे ख़ुद शहर जाना होगा वहीं से जहां से उसकी मां पहले माल मंगवाया करती थीं। इस बार अज़हर को ख़ुद जाना था। ये उसका पहला सफ़र था मां के बग़ैर। दिल में एक अजीब सी कसक थी क़दम बढ़ा रहा था लेकिन दिल हर मोड़ पर थम सा जाता। सुबह-सवेरे उसने अपना थैला बांधा, कुछ ख़ुश्क खाने-पीने की चीज़ें, कुछ सिक्के और मां की यादों को दिल में बसाकर वो अपने सफ़ेद घोड़े पर सवार हुआ और निकल पड़ा एक अनजाने शहर की जानिब।
रास्ता वीरान था, सहरा जैसा, धूप की तल्ख़ी और वक़्त की तंगी ने मिलकर सफ़र को और भी मुश्किल बना दिया। कई घड़ी बीत गईं, पेड़ों का साया कम होता गया,
पानी की तलाश बढ़ने लगी। मगर अज़हर के दिल में एक उम्मीद बाक़ी थी “मैं मंज़िल तक पहुंच जाऊंगा,
मगर जैसे-जैसे सूरज मगरिब की जानिब झुकने लगा, उसी तरह उसकी उम्मीदें भी हल्की पड़ने लगीं। शाम का धुंधलका फैल चुका था, और अब तो अंधेरा अपनी चादर तान चुका था। थकान ने जिस्म को चूर-चूर कर दिया था, और सबसे ज़्यादा तकलीफ़देह बात ये थी कि ख़ुश्क खाना जो साथ लाया था, वो भी अब ख़त्म हो चुका था। प्यास ने हलक को जला रखा था, और भूख ने जिस्म को बेजान बना दिया। घोड़ा अब धीमे चलने लगा था और अज़हर की पलकों पर बोझ बढ़ता जा रहा था।
रात का सन्नाटा एक खौफ़नाक चादर बन चुका था। दूर, जंगल की तरफ़ से दरिंदों की दहशतनाक आवाज़ें आतीं जो अज़हर के दिल को बेताब और बेचैन कर रही थीं। घोड़ा भी अब बेचैनी का शिकार था। उसके क़दम डगमगाने लगे थे जैसे वो भी किसी अनदेखे ख़तरे को महसूस कर रहा हो। अज़हर ने अपने इर्द-गिर्द देखा मगर उस गहरी तारीकी के सिवा कुछ भी नज़र न आया।
हर तरफ़ सन्नाटा था, और उस सन्नाटे में सिर्फ़ अज़हर की साँसों की आवाज़ थी —
तेज़, बिखरी हुई। उसने ख़ुद को तसल्ली दी, “बस थोड़ी देर और… शायद आगे कोई महफ़ूज़ जगह मिल जाए…” मगर भूख और प्यास अब शिद्दत इख़्तियार कर चुकी थी। हर क़दम पर जिस्म और रूह का बोझ भारी होता जा रहा था। अज़हर अब हैरान था, परेशान था दिल में एक डर-सा बैठ गया था। उसे लगने लगा था “शायद इसी सफ़र में ही मेरी मौत लिखी हुई है…”
ना जगह ठीक थी, ना पानी, ना खाने का कोई ज़रिया।
भूख तो किसी दर्जे में अब तक बर्दाश्त हो रही थी मगर प्यास…
प्यास ने अज़हर को बेताब कर रखा था।
उसने घोड़े की रफ़्तार बढ़ा दी, उम्मीद थी शायद कहीं कोई आबादी मिल जाए, कोई चश्मा… कोई सराय… मगर चंद क़दमों के बाद ही घोड़ा एकाएक रुक गया, सांसें तेज़, जिस्म थका हुआ और अंधेरे ने अब रास्ता निगल लिया था। इस हालत में सफ़र नामुमकिन था। ख़ौफ़, थकावट और भूख से बेहाल अज़हर अब ख़ुद भी ज़मीन पर लेट गया।
सर के नीचे रक़्ता यानी कपड़ा था और ऊपर आसमान जिस पर बादल और सन्नाटा दोनों क़ायम थे। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी क्योंकि पेट ख़ाली था, दिल घबराया हुआ,और चारों जानिब खामोश वीराना।
इन्हीं लम्हों में एक पुरानी आवाज़ दिल की तह से उभरी: “बेटा, अल्लाह पर यक़ीन रखो… वो तुम्हें वहाँ मिलेगा जहाँ तुम्हें कोई और न मिलेगा…” बस, ये ख्याल आना था कि अज़हर की आंखें भीग गईं। होंठ काँपते हुए खुले और दिल से बे-इख़्तियार दुआ निकल पड़ी: “ऐ मेरे अल्लाह… अगर मेरी मां की बात सच थी, तो इस खौफ़नाक बयाबान में मेरे लिए कोई राह बना। तू जानता है मेरे दिल के हालात, मैं कितना भूखा हूँ, कितना प्यासा हूँ। तू ही हर मख़लूक़ की रोज़ी का ज़िम्मेदार है इस सहरा में भी मेरी मदद फ़रमा…” अंधेरा और गहरा हो चला था मगर अज़हर के लफ़्ज़ अब रौशनी बनकर फ़िज़ा में फैल चुके थे।
दुआ के बाद अज़हर वहीं ज़मीन पर लेटा रहा दिल अब भी बेचैन था, जिस्म थका हुआ, और आँखें इंतज़ार में। अभी कुछ ही लम्हे गुज़रे थे कि अचानक घोड़ा बुरी तरह घबरा गया। उसने ज़ोर से हिनहिनाया और बग़ैर किसी इशारे के उठ खड़ा हुआ और फिर खौफ़ज़दा अंदाज़ में दौड़ पड़ा! अज़हर हड़बड़ा गया। उसे ग़ुस्सा भी आया और डर भी। कहने लगा: “अब ये क्या नई मुसीबत है!?”
लेकिन जब उसने देखा कि घोड़ा तेज़ी से दूर निकलता जा रहा है तो बिलकुल बेज़ारी के साथ वो भी उसके पीछे दौड़ पड़ा। क्योंकि अगर घोड़ा चला जाता, तो अज़हर इस वीराने में और भी तनहा रह जाता। घोड़ा ही तो उसका आख़िरी सहारा था। कुछ फासला तय करने के बाद घोड़ा रुक गया और अज़हर ने तेज़ी से जाकर उसे दोबारा काबू में ले लिया।
मगर अब एक नई परेशानी सामने थी इस पीछा-पाई में अज़हर अपना रास्ता ही भुला बैठा था। अंधेरे में उसे अब समझ नहीं आ रहा था कि किधर से आया था, किधर जाना है। क़दमों में झिझक थी, मगर दिल ने कहा “रुकने से बेहतर है कि चला जाए…” सो उसने घोड़े को सँभाला, और धीरे-धीरे अंधेरे में आगे बढ़ने लगा। अभी चंद ही क़दम चले होंगे कि कहीं दूर एक हल्की सी रौशनी झलकने लगी। अज़हर की रगों में एक नयी जान दौड़ गई। दिल ने कहा: “शुक्र है, शायद कोई आसरा है…” “चलो… वहाँ चलकर आज की रात गुज़ारते हैं…”
पुराने वक़्तों की ये रवायत थी कि मुसाफ़िर जहां कहीं पहुंचें, उनके सुकून, आराम और ज़रूरत का हर मुमकिन इंतज़ाम लोग अपनी ज़िम्मेदारी समझते थे। अज़हर के ज़हन में भी यही ख़्याल था। इसलिए जब उसने उस दूर की रौशनी देखी तो दिल को एक सहारा मिला। उसने घोड़े की लगाम थामी और तेज़ क़दमों से उस तरफ़ चल पड़ा। जब क़रीब पहुंचा, तो देखा कि वो एक पूरी बस्ती थी घरों से भरी हुई, आबाद और दरो-दीवार से मुकम्मल। उसका दिल कुछ नरम पड़ा,
सोचा: “शुक्र है, इस वीराने में कोई जगह तो मिली जहाँ सर छुपा सकूं।”
वो एक घर की ओर बढ़ा दरवाज़े पर पहुँचा तो देखा, ताला पड़ा है। कुछ हैरानी हुई, पर सोचा शायद इस घर के लोग कहीं बाहर गए होंगे। दूसरे घर की ओर चला, वहाँ भी वही मंज़र ताला, सन्नाटा और वीरानी।
फिर तीसरा,
फिर चौथा —
हर एक दरवाज़े पर ताला लटक रहा था।
हर गली ख़ामोश, हर घर बंद।

अज़हर की पेशानी पर शिकन आ गई दिल ने पूछा: “ये कैसी बस्ती है जहाँ कोई भी मौजूद नहीं?” “क्या पूरी आबादी ही कहीं चली गई है?” अब उसके दिल में ख़ौफ़ की लहर उठने लगी। तभी उसकी नज़र एक ऐसे घर पर पड़ी जहाँ से हल्की सी रौशनी छन रही थी, जैसे कोई चिराग़ बुझने से पहले की आख़िरी लौ दे रहा हो। उम्मीद फिर से जागी। वो उस दरवाज़े तक पहुँचा, और नरम सी दस्तक दी। कुछ लम्हों बाद अंदर से एक बुज़ुर्ग आवाज़ आई भारी मगर साफ़: “कौन है जो रात के इस पहर दरवाज़ा खटका रहा है?”
अज़हर ने दरवाज़े पर खड़े होकर दबे लहजे में जवाब दिया: “मैं एक मुसाफ़िर हूं… रास्ता भटक गया हूं। ये रात कहीं कट जाए, बस इसी की पनाह चाहता हूं…”कुछ पल की ख़ामोशी के बाद, दरवाज़ा धीरे से चरचराया, और अंदर से वही आवाज़ आई “आ जाओ, बेटा।” अज़हर ने राहत की सांस ली। उसने अपने घोड़े को पास के सूखे पेड़ से बांधा, और थके हुए क़दमों से घर में दाख़िल हुआ। जैसे ही वो अंदर पहुंचा, उसके क़दम थम गए। एक अजीब सी हैरत उसके चेहरे पर छा गई। घर सादा था, दीवारों पर कोई सजावट नहीं, ना ही कोई दिखावे की शान। बस एक कोना था जहां एक बूढ़ा शख्स ज़मीन पर लेटा हुआ था।
उसके दोनों पांव नहीं थे। लेकिन उसके चेहरे पर शिकन नहीं, बल्कि मुस्कुराहट थी। अज़हर धीरे से उसके क़रीब जा बैठा। बुज़ुर्ग ने नरम आवाज़ में पूछा: “बेटा, कहां से आ रहे हो, और कहां जाना है?” अज़हर ने अपने पूरे दिन का सफ़रनामाः,
भूख-प्यास, रास्ता भटकना, वीरान बस्ती और दिल का हाल सब कुछ बयान कर दिया। जब अज़हर की बात मुकम्मल हुई, तो वो थके हुए लहजे में बोला: “बाबा… मुझे बहुत शिद्दत की प्यास और भूख लगी है, मेहरबानी फरमाएं, अगर पानी मिल जाए… और कुछ खाने को हो तो…”
बुज़ुर्ग ने जब जवाब दिया: “भाई, यहां तो पानी नहीं है। तुम्हें वहां जाना होगा जहां इस सहरा में दूर एक रौशनी दिखाई दे रही है। वही से शायद पानी मिल सके। और खाने का इंतज़ाम तो… अल्लाह ही करेगा। वो मेरे इख़्तियार में नहीं है…” अज़हर को ये बात अजीब सी लगी।उसके चेहरे पर हैरत की हल्की सी परत चढ़ गई। मगर भूख और प्यास की शिद्दत, उसके सोचने की ताक़त को चाट चुकी थी। वो बोझिल क़दमों से उस रौशनी की तरफ़ रवाना हो गया। सहरा की ख़ामोशी, और चारों तरफ़ पसरी हुई तारीकी, जैसे हर क़दम पर उसके इम्तिहान ले रही हो।
काफ़ी दूर चलने के बाद उसे सामने एक पुरानी सी झोंपड़ी दिखाई दी। अंदर से धीमी धीमी आवाज़ आ रही थी। जैसे कोई ख़ुद से बातें कर रहा हो, या किसी अंजान ज़बान में कुछ बुदबुदा रहा हो। अज़हर के क़दम ठिठक गए। उसका दिल धक-धक करने लगा। “ये कौन है…? कोई इंसान…? या फिर…” ख़्याल ही ख़्याल में था कि उसने हिम्मत कर के झोंपड़ी के दरवाज़े पर दस्तक दी। अंदर से एक गहरी, मगर शांत आवाज़ आई: “हाँ बोलो,
मुझे यक़ीन है…
तुम्हें पानी चाहिए…”
अज़हर की आंखें चकित रह गईं। “ये कैसे जान गया…?” मगर अब सवाल का वक़्त नहीं था प्यास ने उसका गला सूखा दिया था। वो बेताबी से बोला: हाँ… हाँ मुझे पानी चाहिए!” अंदर से फिर वही आवाज़ आई: “तो फिर अंदर आ जाओ…” अज़हर ने हिम्मत समेटी, और झोंपड़ी के पर्दे को धीरे से हटाया, और अंदर दाख़िल हो गया…
अंदर दाख़िल होते ही अज़हर की नज़र एक बुज़ुर्ग शख़्स पर पड़ी, जो सजदे में झुका हुआ, पूरे इत्मीनान से नमाज़ अदा कर रहा था। ये मंजर देखकर जैसे अज़हर की रूह को सुकून मिल गया। नमाज़ मुकम्मल हुई। बुज़ुर्ग ने अज़हर की तरफ देखा और मुस्कुराते हुए कहा: “बेटा… जब इंसान का अल्लाह पर भरोसा कमज़ोर हो जाए, तभी वो अपने रास्ते भटकने लगता है…” ये अल्फ़ाज़, सादे मगर तीर की तरह उसके दिल में उतर गए। फिर बुज़ुर्ग ने इशारा करते हुए कहा: “वहाँ कोने में एक मटका रखा है, उसे उठाओ और अपने साथ ले जाओ…”
अज़हर ने देखा, वहाँ एक मिट्टी का भरा हुआ मटका रखा था ठंडा, ताज़ा पानी उसमें लबालब था। उसने शुक्रिया कहा, मटका उठाया और तेज़ी से वापस चल पड़ा। लेकिन हर क़दम पर, बुज़ुर्ग की वो बात, उसके ज़ेहन में गूंज रही थी “मेरा भरोसा अल्लाह पर बहुत कमज़ोर है…” इस सोच ने उसे बेचैन कर दिया, मगर वो खामोशी से चलता रहा। रास्ते में उसके दिल में एक ख़्याल आया:
“क्यों ना यहीं थोड़ा सा पानी पी लूं…? कम-अज़-कम प्यास तो कम हो जाए।“ मगर एक और ख़्याल बिजली बन कर दिल में कौंधा: “शायद वो माज़ूर शख़्स भी प्यासा हो… थोड़ी ही दूरी रह गई है, क्यों ना वहीं जाकर साथ में पानी पी लूं?” इस ख्याल ने उसके इरादे को मजबूत किया। उसने कदमों की रफ्तार बढ़ा दी। मगर अंधेरे में, जब घर बिल्कुल क़रीब था, अचानक उसका पाँव किसी कठोर चीज़ से टकराया, और वो ज़मीन पर गिर पड़ा। मटका, उसके हाथ से छूट कर ज़मीन से टकराया और टूट गया। सारा पानी, रेत में बह गया। एक क़तरा भी बाक़ी न बचा।
अज़हर ने ज़मीन पर लेटे-लेटे देखा हक़ीक़त उसकी आंखों के सामने थी। ग़ुस्सा उसकी रग-रग में दौड़ गया। उसने मिट्टी की मुठ्ठियाँ भरीं, मगर फिर अपने को क़ाबू करते हुए बस इतना ही कहा: “ये सब मेरी ग़लती है… अगर अल्लाह पर पूरा भरोसा होता, तो शायद ये ना होता…” वो ख़ुद को कोसता हुआ आहिस्ता से उठ खड़ा हुआ और घर के अंदर दाख़िल हो गया…
माज़ूर शख़्स ने बड़ी नर्मी से अज़हर से पूछा: “क्या पानी मिल गया, बेटा?” अज़हर ने थके हुए लहजे में, नीची निगाहों से जवाब दिया: “पानी तो मिल गया था… लेकिन मुझसे मटका गिर गया, सारा पानी ज़मीन में समा गया।”
फिर वो गहरी सांस लेकर बोला: “बाबा… अब मुझमें बोलने की भी ताक़त नहीं बची। बस इतना पानी मिल जाए कि सांस ले सकूं, बाक़ी जो होगा, देखा जाएगा…” ये कहते हुए उसकी आँखों में थकावट, मायूसी और प्यास की शिद्दत झलक रही थी।
माज़ूर शख़्स ने चुपचाप आसमान की तरफ हाथ उठाए, और बड़ी सादगी से दुआ की: “ऐ मेरे अल्लाह… अगर वाक़ई ये मुसाफ़िर इतना प्यासा और भूखा है,
तो तू मदद करने पर क़ादिर है। मेरी मदद कर… ताकि मैं इस मुसाफ़िर की मदद कर सकूं।” ये अल्फ़ाज़ अज़हर के कानों में जैसे चुभ गए। उसके चेहरे पर ख़फ़गी और हैरानी का मिला-जुला असर था। दिल में सोच रहा था: “ये कैसा शख़्स है…?
खुद ज़मीन से उठा नहीं सकता, और ऊपरवाले से उम्मीद लगाए बैठा है कि कोई हमारी मदद को आएगा… इस वीरान जगह पर… इस वक़्त?” मगर फिर भी,
वो ख़ामोश रहा। अजहर इन्हीं ख़्यालों में डूबा ही था कि अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। वो एकदम सीधा बैठ गया, उसकी आँखें चौड़ी हो गईं।
“इस वक़्त…?
इस वीरान जगह पर…?
कौन हो सकता है…?”
मगर माज़ूर शख़्स ने मुस्कुरा कर, नज़रों में यक़ीन लिए हुए कहा: “बेटा… जो भी है, तेरे लिए ही पानी और खाने का बंदोबस्त लेकर आया है… अज़हर ने धीरे से दरवाज़ा खोला, तो वही बुज़ुर्ग शख़्स उसके सामने खड़ा था चेहरे पर वही सुकून भरी मुस्कुराहट। वो बोला: “तुमसे एक मटका भी नहीं सँभाला गया… लो, ये पानी और खाना। और हाँ तुम्हारे घोड़े के लिए भी पानी रख दिया है। तुम्हें तो अपनी ही पड़ी थी, जानवर का भी कुछ खयाल कर लिया करो!” अज़हर ने ये सुना तो हैरानी से उसकी आँखें फैल गईं। उसने दिल ही दिल में कहा: “ये दोनों शख़्स तो… जैसे हर बात पहले से जानते हों… जैसे मेरी हालत, मेरे इरादे सब इनकी नज़र में हो!”
मगर उस वक़्त भूख और प्यास की शिद्दत हर सोच पर भारी थी। बिना कुछ कहे,
अज़हर ने बड़े शौक़ से पानी पिया, और फिर खाने पर टूट पड़ा. हर निवाला जैसे राहत की सांस दे रहा था। जब पेट भर गया, तो सवालात ज़ेहन में सर उठाने लगे। वो माज़ूर शख़्स के क़रीब गया और अदब से बोला: “बाबा, एक बात पूछनी है…
अगर बुरा न मानें…” माज़ूर शख़्स ने नरमी से मुस्कुराकर कहा: “अभी नहीं बेटा…
पहले मुझे ज़रा सा पानी दे दो। बड़ी प्यास लगी है…” अज़हर ने झट से लोटा भरकर पानी पेश किया। बुज़ुर्ग ने सुकून से पानी पिया और कहा: “अब तुम भी थोड़ा आराम कर लो… सवालों का वक़्त भी आएगा, जवाब भी मिलेंगे।” अज़हर को भी पूरा दिन का सफ़र, भूख-प्यास, और फिर ये अजीबो-ग़रीब मंजर थका कर रख चुके थे। वो वहीं ज़मीन पर लेट गया, और कुछ ही देर में नींद की आग़ोश में डूब गया।
सुबह की हल्की रोशनी ने जब कमरे को छूना शुरू किया, तो अज़हर की आँख खुली। उसने देखा माज़ूर शख़्स सुकून और एहतराम से नमाज़ अदा कर रहा था।
वो ख़ामोशी से अपनी जगह बैठ गया। दिल में कुछ अजीब सा एहसास था। जब नमाज़ मुकम्मल हुई, अज़हर ने धीरे से कहा: “बाबा… अब तो मेरे सवालों का जवाब दे दीजिए…” बुज़ुर्ग ने मुस्कुराकर उसकी तरफ देखा और बोले: “अजीब बात करते हो बेटा…अल्लाह ने तुम्हें नई ज़िंदगी दी, भूख-प्यास मिटाई, सुकून दिया… लेकिन तुमने ना रात की नमाज़ पढ़ी, ना सुबह की।” ये सुनते ही अज़हर का दिल काँप उठा। उसे महसूस हुआ वो वाक़ई किसी बड़ी नेमत से ग़ाफ़िल रहा।
वो फ़ौरन उठ खड़ा हुआ, वुज़ू किया और पूरी तवज्जो से फज्र की नमाज़ अदा की। नमाज़ के बाद वो कुछ देर ख़ामोशी से बैठा रहा, फिर बिना कुछ कहे अपना सामान उठाया, घोड़े पर लादा और बुज़ुर्ग से अलविदा कहने ही वाला था कि पीछे से आवाज़ आई: “बेटा, रुक जाओ… पूछ लो जो पूछना है…”
अज़हर ने पलट कर देखा वही बुज़ुर्ग शख़्स मुस्कुराते हुए उसे पास बुला रहे थे। वो क़रीब गया और अदब से पूछा: “बाबा… ये बस्ती खाली क्यों है?” बुज़ुर्ग ने इत्मिनान से जवाब दिया: “यहाँ हर साल बारिशों में पानी भर जाता है। लोग ऊपरी इलाकों में कुछ दिनों के लिए चले जाते हैं। बस, वक़्ती तौर पर वीरान होती है ये बस्ती…”
अज़हर ने हैरानी से अगला सवाल किया: “तो फिर आप यहाँ क्यों ठहरे हुए हैं?” बुज़ुर्ग बोले: “मैं चलने-फिरने के क़ाबिल नहीं… और फिर… इबादत के लिए ये जगह मुझे छोड़नी नहीं है। अल्लाह का ज़िक्र, तन्हाई, सुकून बस यही चाहिए मुझे।” अज़हर ने रुककर आख़िरी सवाल किया: “और वो जो बुज़ुर्ग पानी और खाना लेकर आए थे… वो कौन हैं?” माज़ूर शख़्स की आंखों में चमक आ गई। बोले: “वो अल्लाह का एक नेक बंदा है… जो सारी रात इबादत करता है… और दिन में भूखों, प्यासों और बेसहारा लोगों की मदद करता है। तुम्हारे लिए भी वही भेजा गया था।” अज़हर कुछ पल ख़ामोश रहा… फिर आख़िरी सवाल किया: “बाबा… आपको कैसे यक़ीन था कि खाना और पानी मिल ही जाएगा?”
ये सुनकर माज़ूर शख़्स हल्के से मुस्कुराया, उसकी आँखों में ताजगी थी, लफ्ज़ों में यक़ीन: “बेटा… अगर मालिक से नहीं माँगोगे, तो किससे माँगोगे? ये वीराना तुम्हारे लिए पहली रात थी… मैं यहाँ दस साल से रह रहा हूँ। और इन दस सालों में एक दिन, एक रात भी ऐसी नहीं आई, जब अल्लाह ने मुझे भूखा छोड़ा हो। बस, यक़ीन रखना सीख लो…”
“कल रात सिर्फ तुम्हारी वजह से मुझे खाना देर से मिला…” अज़हर ठिठक गया।
हैरानी से पलटा और बोला: “मेरी वजह से? वो कैसे बाबा?” माज़ूर शख़्स ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा: “जब उस सहरा में तुमने अल्लाह को पुकारा, तो तुम्हारा घोड़ा डर गया था… वो डर कोई मुसीबत नहीं थी, वो अल्लाह की रहमत थी।” अज़हर सन्न रह गया। जिस जगह तुम रात गुज़ारने वाले थे, वहाँ से आज तक कोई ज़िंदा वापस नहीं लौटा। लेकिन अल्लाह ने तुम्हें बचाया… उसने तुम्हें भटका कर नहीं, हिफ़ाज़त के लिए इधर मोड़ा। वही है जो रास्ते बनाता है। वही है जो मंज़िल तक पहुंचाता है।”
अज़हर की आँखें नम हो गईं। माज़ूर शख़्स ने एक लम्बी साँस ली और कहा: “चाहे सहरा हो या वीराना, चाहे रात का अंधेरा हो या तूफ़ान, अल्लाह हर वक़्त, हर घड़ी, अपने बंदे के साथ होता है। बस बात सिर्फ एक है— उस पर पूरा यक़ीन और भरोसा रखने की…”
माज़ूर शख़्स के हाथ चूमकर अज़हर अपने सफर पर रवाना हो गया।
उसके कदम अब पहले जैसे न थे—अब उनमें भटकाव नहीं, भरोसे का ठहराव था। सहरा की उस रात ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया था… अब हर मोड़, हर रास्ता उसे उसकी माँ की बातें याद दिला रहा था. वो बातें जो कभी नसीहत लगी थीं, आज हक़ीक़त का आईना बन चुकी थीं।
“बेटा, अल्लाह पर भरोसा कभी कम मत करना…
जब दुनिया के सारे सहारे छूट जाएं,
वहीं से अल्लाह का सहारा शुरू होता है।”
अज़हर अब जान चुका था कि असली हिम्मत ताक़त में नहीं, बल्कि भरोसे में होती है। अब उसका यक़ीन अल्लाह पर यूँ मजबूत हो चुका था, जैसे कोई पहाड़ तूफ़ानों के बीच भी अपनी जगह कायम रहता है। वो सफर करता रहा, हर कठिनाई में उसने अल्लाह का शुकर अदा किया। हर अकेलेपन में उसने उसे पुकारा। और हर बार, उसे जवाब मिला… मदद मिली… रास्ता मिला। अज़हर ने आख़िरकार अपना सफर मुकम्मल किया, लेकिन असल हासिल सिर्फ मंज़िल तक पहुँचना नहीं था, बल्कि उस रास्ते में जो सीखा, जो समझा, वो ही सबसे बड़ी दौलत थी।
सबाक़ –
“ज़िंदगी के रास्ते मुश्किल ज़रूर होते हैं,
मगर जब दिल में यक़ीन हो और जुबां पर दुआ,
तो अल्लाह हर वीराने में रहमत उतार देता है।
मुसाफ़िर वही कामयाब होता है
जो रास्ते से नहीं, रब से जुड़ता है।”
अल्लाह से मांगो, तो दिल से मांगो।
क्योंकि जब वो देता है,
तो वो खुद से बेहतर देता.
उम्मीद है की ये अजहर का ये किस्सा आपको बहोत कुछ सबक दे गया होगा. कमेंट में अपनी राय का इज़हार ज़रूर करे. और विदोए पसंद आई हो तो इसे अपने दोस्त एहबाब के साथ भी ज़रूर शेयर करे. अल्लाह पर यकीन और सबक आमोज किस्सों के लिए हमारे चैनल को सब्सक्राइब ज़रूर कर लीजिये. बहोत जल्द दुबारा मुलाक़ात होगी एक और बहोत ही सबक आमोज किस्से के साथ…..